विराम
कभी डर देखा है?
दबे पाँव pani सा पैर पसरा डर,
इठलाती हंसी के खनख ले बीच का चीखता मौन,
चूल्हे की गर्माहट में खामोश सरकती रख,,
चमकत आँखों के थकने के इंतज़ार में अँधेरी गर्तों से उमड़ते नींद के साये,
उफनती बावरी सांसों में खौफ का बीज,
ोाने की ख़ुशी में वो खालीपन का एहसास
उम्मीद की सांसों को उल्जता समय हर ख़ुशी के पीछे कड़ी हार,
कोशिशों के लड़कपन को झकझोरती थकान,
ज़िन्दगी में सूनेपन का वो विराम,
वो डर ही तो है जो ज़िन्दगी इक हर जीत में भी हर बार जीतता है।
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