औ र कुछ नही बस उम्मीदों कि आबरू
है जो बनती औ र बिखरती है ।
वैसे तो हम भी समझदारो में गिने जा सकते है ,
पर उम्मीदों कि समझदारी है, जो मेरी समझदारी को शर्मिंदा करती है ।
अगर मेरी समझदारी को दिन की धू प से मुहब्बत न होती,
तो शायद उम्मीदों के साये के बगैर उसको साँस लेने की आदत होती ।
पता नही चलता कि कौन सी आदत है जो मेरी जान को परेशान करती है ।
वैसे तो हम भी समझदारो में गिने जा सकते है ,
पर उम्मीदों कि समझदारी है, जो मेरी समझदारी को शर्मिंदा करती है ।
अगर मेरी समझदारी को दिन की धू प से मुहब्बत न होती,
तो शायद उम्मीदों के साये के बगैर उसको साँस लेने की आदत होती ।
पता नही चलता कि कौन सी आदत है जो मेरी जान को परेशान करती है ।
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